गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
मेरे सिद्धान्तसे भक्ति और ज्ञानके मार्गमें समानता है, युगल उपासना नहीं है, कोई भक्तिको श्रेष्ठ मानते हैं एवं युगल उपासना करते हैं। शास्त्रके हिसाबसे सब एक है। ध्रुवने केवल भगवान्की उपासना की, प्रह्लादने केवल भगवान्की उपासना की और आये भी भगवान् अकेले ही। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि युगल उपासनाके बिना भगवान् नहीं मिल सकते। मैं आपकी मान्यताकी निन्दा नहीं कर रहा हूँ मान्यता आपकी भी अच्छी है और मेरी भी अच्छी है, परन्तु यदि तुम यह कहोगे कि आपकी मान्यता खराब है तो मैं इसे स्वीकार नहीं करूंगा। प्रारम्भसे ही मेरे ध्यानमें यह बात बैठ गयी थी कि स्त्रीको दूर ही रखना चाहिये। मुझे यह समझमें आया कि यह बड़ा भारी दोष है। जो भी इनका अधिक संसर्ग करे वह इनसे बहुत सावधान रहे। प्रत्यक्ष फलको देखना चाहिये न कि भावीके फलको। मनुष्यको चार चीज गिरानेवाली है—स्त्री, शरीरका आराम, कंचन एवं बड़ाई। किसी कविने कहा है-
कंचन तजना' सहज है सहज त्रियाका नेह।
मान बड़ाई ईष्र्या दुर्लभ तजना एह।।
बड़ाईमें अहंकार, कंचनमें लोभ, स्त्रीमें काम और शरीरके आरामके दोषमें मोहकी प्रधानता है, काम, लोभ, मोह आदि बड़े भारी शत्रु हैं। भगवान्ने आत्माका दमन करनेवाले नरकके तीन द्वार बताये हैं-काम, क्रोध एवं लोभ। काम, क्रोध आदिके निवारण करनेका उपाय यही है कि जिस तरह पुलिसको पुकारनेपर डाकू भाग जाते हैं, उसी तरह भगवान्को पुकारनेपर ये तीनों शत्रु भाग जाते हैं। कोई हमारा अपमान करता है वह हमें हृदयसे खटकता है, पर कोई बड़ाई करता है, सत्कार करता है, वह प्यारा लगता है। कीर्ति और मान अच्छा लगता है। क्रोधकी अग्नि भी थोड़ी देरमें ही शान्त हो जाती है, लेकिन कामका भूत ज्ञान-बुद्धि - सबको खो देता है। अपकीर्तिका भय दिखानेपर कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा, परलोकका कुछ प्रभाव अवश्य हुआ, क्योंकि वह दीखता नहीं है। अन्तमंक जैसे उफनते दूधमें पानी डाल दिया जाता है, उसी तरह जब भगवान्को पुकारा तो सब ठीक हो गये, कामक्रोध विवेकसे नहीं हटे। मेरेको दो बातोंसे बहुत सहायता मिली। भक्तिके मार्गमें जब भी मनमें कोई दोष आता तो हे नाथ! हे नाथ! पुकारता और ज्ञानके मार्गमें 'अडंग बडंग स्वाहा' से बहुत सहायता मिली। इससे संसारमें जो कुछ भी दृश्यमात्र है, सबका अभाव हो जाता है। कोई पूछे कि यह बात गीताके किस श्लोकसे निकाली, क्योंकि यह मंत्र तो किसी शास्त्रमें नहीं है।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।
(गीता १४।१९)
जिस समय द्रष्टा तीनों गुणोंके अतिरिक्त अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणोंसे अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्माको तत्वसे जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।
साधक पुरुष यह देखता है कि गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं। भगवान् कहते हैं कि वह मेरे भावको प्राप्त होता है। अन्त:करणकी दृष्टिसे देख रहा है कि शरीर पृथक् है और आत्मा पृथक् है। चल रहा है तो शरीरको इदं रूपसे देखता है। आकाशकी तरह अपने तरह देखता है, उनसे आकाश निर्लिप्त है। यह जो साधना बतलायी इसको बराबर करता रहे। जितने भी पदार्थ, कीट, पशु, मनुष्य आदि हैं, इन सबको परमात्माका स्वरूप या परमात्माके अंशके रूपमें देखे। मैं भी परमात्माका अंश हूँ ये सब मेरे बड़े भाई हैं या इन सबमें ईश्वर है तो ये हमारे स्वामी हैं, मैं सबका सेवक हूँ। अपनेको तृणसे भी हलका समझे। मैं एक किंकर हूँ, एक तृण हूँ तृणसे भी हलका हूँ। चैतन्य महाप्रभुका सिद्धान्त 'तृणादपि। सुनीचेन' मान ले तो अपनेको छोटे-से-छोटा मानता हुआ बहुत हलका बना ले।
भ्रातस्तिष्ठ तले तले विटपिना ग्रामेषु भिक्षाम् अट
स्वच्छन्दं पिब जामुन जलमल चीराणि कन्थां कुरु।
सम्मानं कलयाति घोर गरलं नीचापमानं सुधा
श्रीराधामुरलीधरौ भज सखे वृन्दावन मा त्यज।।
किसी भी एक वृक्षका ही आश्रय मत ली, अलग-अलग वृक्षके नीचे वास कर लो, भिक्षाके लिये ग्रामोंमें घूमकर माँग लाओ, जब प्यास मालूम दे तो यमुनाजलका यथेच्छ पान कर लो, चीर वस्त्र ही धारण करो (किसी तरहकी शौकीनीकी आवश्यकता नहीं है, शरीरको क्या सजाना), यदि कोई सम्मान करे तो जानो कि यह अति जहरीला विष है और नीच लोग अपमान करें तो उसे अमृतस्वरूप समझो, हे मित्र! श्रीराधा-मुरलीधरका ही भजन करते हुए श्रीवृन्दावनमें रहो, वृन्दावनको छोड़कर मत जाओ।
जैसे, जिसकी जैसी योग्यता है नाटक के स्वांग में उसे वैसा ही पार्ट दिया जाता है। लड़का स्वांगके अनुसार ही नाटकमें पिताके साथ व्यवहार करे। पिता समझता है कि यह नाटक में ऐसा कर रहा है, वैसे ही स्वांगकी तरह सबसे व्यवहार करना चाहिये। जबतक व्यवहारका ज्ञान रहे तबतक ही स्वांगकी तरह करनेकी जिम्मेवारी है। नहीं तो और ऊँची स्थितिमें भूल होनेमें कोई दोष नहीं है। महात्मा पुरुष भी लोक-व्यवहार की तरह स्वांग करते हैं। उनके ऊपर तो बंधन नहीं है। लोकमर्यादा के लिये, लोकसंग्रहार्थ ही कर्म करते हैं। भगवान्ने गीतामें कहा है-
यद्धदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
(3।21)
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।
मैं कहीं गुंजाइश नहीं देता हूँ कि ज्ञानीको कर्मोंका त्याग करना चाहिये।
सक्ताः कर्मण्यविद्वासो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासप्तचिकीर्युलोंकसंग्रहम् (गीता ३।२५)
जैसे अज्ञानी कर्मों में आसक्त होकर कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी भी अनासक्त होकर करे। वे केवल लोकसंग्रहार्थ ही कर्म करते हैं।
स्वयं ही आदमी अपनी बड़ाई कराये, चाहे प्रतिष्ठा कराये, यह नीचताका काम है, आजकल यही आदर्श हो रहा है। भले आदमीके लिये यह बहुत नीचे दर्जेका काम है, इससे भी नीचे दर्जेका वह है जो अपनी बड़ाईके साथ ही दूसरेकी निंदा करे। आपको धोखा दिया यह बुरा काम किया। आजकल वोटके लिये द्वार-द्वारपर जाकर सिफारिश करते हैं। अच्छा आदमी वही है जो न किसीकी निन्दा करे न किसीकी स्तुति करे।
नारायण! नारायण! नारायण!
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